30-11-2025:आपदा प्रबंधन विश्व शिखर सम्मेलन (WSDM) 2025 के समापन सत्र में माननीय राज्यपाल महोदय का उद्बोधन
जय हिन्द!
भारत और विश्व भर से आए प्रतिष्ठित प्रतिनिधिगण, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकीविद, शोधकर्ता, रक्षा कार्मिक, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सदस्य और उपस्थित जनों!
इस सम्मेलन में आप सभी का अभिनन्दन करते हुए मुझे अत्यंत हर्ष और प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है।
सर्वप्रथम मैं इस वृहद शिखर सम्मेलन की कल्पना करने और सफलतापूर्वक आयोजन करने के लिए उत्तराखण्ड सरकार, यूसीओएसटी, हिमालयन एकेडमी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, एनडीएमए और सभी साझेदार संस्थानों की सराहना करता हूँ।
मेरा मत है कि डब्ल्यूएसडीएम केवल एक आयोजन नहीं, यह एक आंदोलन है, एक सामूहिक दावा है कि अगर हम भविष्य में सुरक्षा, सम्मान और लचीलापन चाहते हैं तो पूरी मानवता को एक साथ काम करना होगा। क्योंकि आपदा की चुनौती किसी एक देश, किसी एक क्षेत्र की चुनौती नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता की साझी चिंता है।
मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि इस सम्मेलन में भू-विज्ञान, जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता, आपदा प्रबंधन, ग्लेशियर विज्ञान, संस्कृति, समाज एवं नीति-अनुसंधान जैसे विविध क्षेत्रों के विशेषज्ञ एक साथ आए हैं। यह विविधता ही इस आयोजन की शक्ति है। विज्ञान के तथ्य, परम्परा के मूल्य और नीति की दूरदृष्टि जब एक मंच पर मिलते हैं- तभी समाधान निकलते हैं, तभी परिवर्तन टिकाऊ होता है।
हिमालय भले ही भारत में स्थित हो, लेकिन उसकी खुशहाली पूरे दक्षिण एशिया और वास्तव में, पूरे विश्व का भाग्य तय करती है। राजदूतों की गोलमेज बैठक, आभासी अंतर्राष्ट्रीय सहयोग संवाद और सभी महाद्वीपों के प्रतिनिधियों की भागीदारी ने यह प्रदर्शित किया है कि हम एक ऐसी विश्व व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ जलवायु परिवर्तन से निपटने की क्षमता सामूहिक रूप से ही प्राप्त की जाएगी।
देवभूमि उत्तराखण्ड वह आध्यात्मिक धरा है जहाँ प्रकृति और संस्कृति एक-दूसरे में विलीन होकर मानवता को संतुलन का संदेश देती हैं। भारतीय सनातन विचार हमेशा से कहता आया है- “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।” अर्थात पृथ्वी हमारी माता है और हम उसके पुत्र हैं।
यह श्लोक केवल दर्शन नहीं, बल्कि आज के आपदा प्रबंधन का प्रथम पाठ भी है। यदि हम पृथ्वी को माता मानते हैं, तो उसके संसाधनों का उपभोग नहीं, बल्कि समुचित उपयोग करेंगे। हम संरक्षण को प्राथमिकता देंगे और विकास को संतुलन के साथ आगे बढ़ाएंगे।
भारत की सनातन संस्कृति ने कभी भी प्रकृति को जीतने का लक्ष्य नहीं रखा। हमारा लक्ष्य हमेशा से उसके साथ चलना, उसके साथ जीना, और उसके साथ संतुलन बनाए रखना रहा है। इसलिए तो हमारी संस्कृति में ब्रह्मांड के पंचतत्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश की उपासना का विधान है।
आज जब पूरी मानवता जलवायु परिवर्तन की गंभीर चुनौतियों से जूझ रही है, तब यह प्राचीन सनातन दृष्टि और भी प्रासंगिक हो उठती है। आपदा प्रबंधन का आधुनिक विज्ञान जिसे “उपजपहंजपवद ंदक चतमचंतमकदमेे” कहता है, वही हमारी संस्कृति ने तो हजारों वर्ष पहले हमें सिखा दिया था।
हिमालय के आंचल में बसे उत्तराखण्ड में यह सम्मेलन एक विशेष अर्थ रखता है। यहाँ का प्रत्येक शिखर, प्रत्येक धारा, प्रत्येक घाटी हमें स्मरण कराती है कि प्रकृति कितनी उदार है और साथ ही कितनी संवेदनशील भी।
जैसा कि हमने हाल ही में पाया है, हिमालय वैश्विक औसत से कहीं ज्यादा तेजी से गर्म हो रहा है। विज्ञान हमें बताता है कि टनकपुर और देहरादून के बीच लगभग 250 किलोमीटर का बंद क्षेत्र लगातार टेक्टोनिक तनाव जमा कर रहा है, यह एक ऐसी चेतावनी है जो हर योजना और नीतिगत फैसले का मार्गदर्शन करेगी।
इस संदर्भ में, देहरादून में आपदा प्रबंधन पर विश्व शिखर सम्मेलन का आयोजन एक आवश्यकता है। यह एक वैश्विक स्वीकृति है कि हिमालय जलवायु परिवर्तन के लिए एक आधारशिला और एक मार्गदर्शक दोनों है।
साथियों,
पिछले कुछ वर्षों में उत्तराखण्ड ने अनेक गंभीर आपदाओं का सामना किया है। 2013 की विनाशकारी केदारनाथ त्रासदी आज भी हमारे हृदयों में दर्द और चेतावनी की तरह अंकित है। इसके बाद चमोली में ग्लेशियर के टूटने की घटनाएँ, उत्तरकाशी और टिहरी में बादल फटना, पिथौरागढ़ तथा रैणी क्षेत्रों में होने वाले भूस्खलन, और हर वर्ष बढ़ती जंगल की आग ने हिमालयी जीवन-व्यवस्था को लगातार चुनौती दी है।
12 नवम्बर 2023 में घटित सिल्क्यारा टनल दुर्घटना, जिसमें मानव-जीवन को बचाने के लिए राज्य और राष्ट्र की सामूहिक शक्ति को एकजुट होकर संघर्ष करना पड़ा, इस बात का प्रमाण है कि आपदा प्रबंधन केवल तकनीक नहीं, बल्कि मानवीय संवेदना और दृढ़ इच्छाशक्ति की भी परीक्षा है।
इस साल धराली और थराली में हुई दुर्भाग्यपूर्ण आपदाएँ हमें यह स्मरण कराती हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों की नाजुक पारिस्थितिकी निरंतर दवाब में है और किसी भी क्षण घातक रूप ले सकती है। ग्लेशियर झीलों (ळस्व्थ्) के फटने का जोखिम, हीटवेव की बढ़ती अवधि, अनियमित और असामान्य वर्षा तथा भू-वैज्ञानिक अस्थिरता- ये सभी संकेत देते हैं कि प्रकृति असंतुलन को कभी सहन नहीं करती और हमें समय रहते सक्रिय होकर उसके संतुलन की रक्षा करनी ही होगी।
बहुत लंबे समय से, मानवता आपदा प्रबंधन पर केंद्रित रही है, जो त्रासदी आने के बाद ही शुरू होता है। लेकिन पहाड़ एक अलग प्रतिमान की माँग करते हैं, जो आपदा से पहले लचीलेपन पर केंद्रित हो, न कि आपदा के बाद राहत पर।
उत्तराखण्ड और सभी पर्वतीय क्षेत्रों का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि हम प्रतिक्रिया के बजाय जोखिम न्यूनीकरण, घटना के बाद के आकलन के बजाय पूर्व चेतावनी, इंजीनियरिंग-भारी सुधार के बजाय प्रकृति-आधारित सुरक्षा, बाहरी बचाव के बजाय सामुदायिक क्षमता और उपचार के बजाय रोकथाम पर कितना अच्छा निवेश करते हैं। सच्चा लचीलापन तब होता है जब कोई आपदा त्रासदी न बन जाए।
“समुदायों के निर्माण के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग” यह न केवल आधुनिक आवश्यकता है, बल्कि भारत की प्राचीन विचारधारा वसुधैव कुटुम्बकम् का ही विस्तारित रूप है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने ळ.20 में इसे विश्व के सामने इस तरह रखा- “व्दम म्ंतजीए व्दम थ्ंउपसलए व्दम थ्नजनतम।” यह केवल एक नारा नहीं बल्कि सनातन धर्म का जीवन-दर्शन है।
कोविड महामारी के दौरान भारत ने इसी भावना का पालन करते हुए 150 से अधिक देशों को वैक्सीन, दवाइयाँ और स्वास्थ्य सामग्री उपलब्ध कराई। हमने मानवता को यह दिखाया कि संकट की घड़ी में सीमाएँ नहीं, बल्कि संवेदनाएँ कार्य करती हैं। यही भावना आपदा प्रबंधन की वैश्विक रणनीति का आधार भी है।
तेजी से बदलते जलवायु परिवेश में सबसे बड़ी चुनौती पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन साधने की है। हम विकास चाहते हैं, रोजगार चाहते हैं, बेहतर जीवन चाहते हैं, लेकिन मैं मानता हूँ कि यह सब प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के बिना भी संभव है।
टिकाऊ विकास का अर्थ है- प्रकृति की क्षमता से अधिक बोझ न डालना। पर्वतीय क्षेत्रों में अवसंरचना निर्माण करते समय पर्यावरणीय संवेदनशीलता को प्राथमिकता देना अनिवार्य है। भारत इस संतुलन को साधते हुए विकास का वैश्विक उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है।
इस सम्मेलन का 5म्.एंगेज, एजुकेट, इनेबल, एम्पावर, एक्सेल. के व्यापक फ्रेमवर्क पर आधारित मॉडल केवल एक नीतिगत ढांचा नहीं, बल्कि भविष्य के लिए एक दिशा है। यदि हम समुदायों को जोड़ें, उन्हें शिक्षित करें, आवश्यक संसाधन प्रदान करें, क्षमता विकसित करें और उत्कृष्टता की ओर प्रेरित करें- तो न केवल आपदाओं का दुष्प्रभाव कम होगा, बल्कि भविष्य की पीढ़ियाँ भी सुरक्षित होंगी।
मैं इस सम्मेलन में उपस्थित वैश्विक विशेषज्ञों से आग्रह करता हूँ कि वे पहाड़ी क्षेत्रों की विशिष्ट चुनौतियों, जैसे बादल फटना, भूस्खलन, भूकंप, ग्लेशियर टूटना और अचानक जलवृद्धि के लिए एक समन्वित और व्यापक प्रबंधन मॉडल विकसित करें, जो सभी हिमालयी राज्यों और विश्व भर के पहाड़ी राज्यों के लिए मार्गदर्शक बने।
तीन दिनों की विचार-यात्रा के बाद यह स्पष्ट है कि आपदा प्रबंधन केवल प्रतिक्रिया प्रणाली नहीं, बल्कि एक सतत प्रक्रिया है। जिसमें वैज्ञानिक शोध, सामुदायिक सहभागिता, राजनीतिक इच्छाशक्ति, तकनीकी नवाचार और वैश्विक सहयोग इन सभी का समन्वय आवश्यक है।
जैसा कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा है- “आपदा में भी अवसर छिपा होता है, यदि हम सीखने की इच्छा रखते हैं।” हमें प्रत्येक संकट को एक पाठ के रूप में स्वीकार करना होगा। जलवायु परिवर्तन हमें बड़ी चुनौती के रूप में दिखाई दे रहा है, लेकिन यदि हम सक्रिय दृष्टिकोण अपनाएँ, तो यही चुनौती मानवता के एक नए सहयोगी युग का आधार बन सकती है।
मुझे विश्वास है कि इस सम्मेलन से प्राप्त विचार, सुझाव और निष्कर्ष न केवल उत्तराखण्ड बल्कि सभी हिमालयी राज्यों, दक्षिण एशिया और विश्व के पर्वतीय क्षेत्रों के लिए मार्गदर्शन का कार्य करेंगे। यह घोषणा हिमालय की सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन की तैयारी, सामुदायिक सहभागिता और वैश्विक सहयोग, इन सबका संयुक्त संकल्प होगी।
समापन सत्र में, मैं कहना चाहूँगा कि हिमालय हमें सिखाता है- ऊँचा वही होता है जो स्थिर हो, जो संतुलित हो, जो धैर्यवान हो। आपदा प्रबंधन भी इसी स्थिरता, संतुलन और धैर्य का विज्ञान है। यह मनुष्य को केवल सुरक्षित नहीं बनाता, बल्कि उसे संवेदनशील भी बनाता है। यह उस भविष्य का निर्माण करता है जिसमें जीवन और प्रकृति साथ-साथ विकसित होते हैं।
माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में भारत अमृतकाल की ओर अग्रसर है। यह वही अमृतकाल है जिसमें “विकसित भारत 2047’’ का स्वप्न साकार होगा। इस यात्रा में हिमालय की निर्णायक भूमिका है, और आप- यह अमृत पीढ़ी- उस स्वप्न को दिशा देने वाली शक्ति हैं। मोदी जी का यही संदेश है कि ‘‘बड़ी सोच और बड़े लक्ष्य ही भविष्य की बड़ी उपलब्धियाँ बनाते हैं।’’ हिमालय के संदर्भ में यह संदेश और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
आज इस सम्मेलन के समापन पर हम सभी एक साझा संकल्प लें- हम विज्ञान को संस्कृति से, तकनीक को परंपरा से, विकास को पर्यावरण से, और दुनिया को वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से जोड़ते हुए एक सुरक्षित, संवेदनशील और सतत भविष्य का निर्माण करेंगे।
‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ॥’’
सभी सुखी रहें, सभी स्वस्थ रहें, सभी को शुभता प्राप्त हो, किसी को भी दुःख न मिले।
इस विश्व शांति और सभी प्राणियों के कल्याण की प्रार्थना के लिए आप सभी का हृदय से धन्यवाद ज्ञापित करते हुए अपनी वाणी को विराम देता हूँ।
जय हिन्द!