29-11-2024 : उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय के एकादश (11वें) दीक्षांत समारोह के अवसर पर माननीय राज्यपाल महोदय का उद्बोधन
जयतु भारतम्! (जय हिन्द)!
देवभाषा संस्कृत और संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन और प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित, उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय के 11वें दीक्षांत समारोह में, आपके मध्य पहुंच कर, मुझे अपार प्रसन्नता हो रही है।
आज जिन विद्यार्थियों के निमित्त यह आयोजन किया गया है, वे सभी स्वर्ण पदक, शास्त्री, आचार्य एवं विद्या वारिधि (पी.एच.डी.) उपाधि धारक, विशेष रूप से साधुवाद के पात्र हैं। मैं सभी छात्र-छात्राओं के माता-पिता, अभिभावक एवं गुरुजनों को भी बधाई देना चाहता हूँ, जिनके संकल्प, सहयोग एवं उचित मार्गदर्शन ने छात्रों की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
मेरा दृढ़ विश्वास है कि ऊर्जा और उत्साह से भरे अमृत काल की इस अमृत पीढ़ी के युवा निकट भविष्य में जिस भी कार्यक्षेत्र में जायेंगे, वहां अपनी शिक्षा, संस्कार, सेवा एवं समर्पण से नए कीर्तिमान स्थापित करते हुए अपने विश्वविद्यालय और राज्य का नाम रोशन करेंगे, तथा राष्ट्र के समग्र विकास व प्रगति में अपना विशेष योगदान प्रदान करेंगे।
आज उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय भी 19 वर्ष का होकर युवावस्था में आ चुका है। यहां के अधिकतम शिक्षक एवं कर्मचारी भी युवा ही हैं। मैं यह अपेक्षा करता हूँ कि आप सभी इस विश्वविद्यालय की प्रगति के लिए मनसा वाचा कर्मणा (मन से, वचन से, कर्म से) निरंतर प्रयासरत रहेंगे।
प्रिय विद्यार्थियों!
किसी भी राष्ट्र के नव निर्माण में या सर्वांगीण विकास में युवा शक्ति की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। हमारा देश युवाओं का देश है। युवाओं में असीम शक्ति, अपार ऊर्जा और अदम्य उत्साह होता है। युवाओं को तो केवल समुचित मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन की आवश्यकता होती है।
मुझे इसके लिए संस्कृत से बड़ा कोई दूसरा साधन नहीं दिखता, क्योंकि अच्छे आचरण, संस्कार एवं चरित्र की शिक्षा संस्कृत साहित्य में सर्वत्र विद्यमान है। इसलिए मेरा विश्वास है कि आप अच्छे आचरण व अच्छे संस्कार के द्वारा समाज की भलाई करते हुए एक नया आदर्श स्थापित करेंगे।
प्रिय छात्रों!
संस्कृत विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में सर्वाेपरि है, इसका साहित्य भी विशाल है, जिसमें ज्ञान, विज्ञान एवं कलाओं के अनगिनत भण्डार विद्यमान हैं। इसलिए यह आपका सौभाग्य है कि आप संस्कृत के छात्र हैं, इस पर आपको गर्व होना चाहिए।
जब दुनिया के अन्य देशों के लोग सामान्य जीवन यापन कर रहे थे, उस समय हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि दिव्य दृष्टि एवं अलौकिक दिव्य शक्तियों से सम्पन्न होकर ज्ञान-विज्ञान एवं कला आदि के क्षेत्र में नए-नए अनुसंधानों एवं साधना के द्वारा प्राणी मात्र के कल्याण के लिए सत्य, सनातन सिद्धान्तों के निर्धारण में तत्पर थे।
संस्कृत भाषा में वेद, उपवेद, व्याकरण, शिक्षा, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष, छन्द, आगम, पुराण, स्मृतियां, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त, चार्वाक, बौद्ध, जैन आदि दर्शन, आदि काव्य रामायण, महाभारत, नाटक, कथा, काव्य, महाकाव्य आदि असंख्य ग्रन्थ आज भी उपलब्ध हैं। आज इन ग्रन्थों में जो ज्ञान विद्यमान है, उसे विश्व पटल पर पुनः प्रतिष्ठित करने हेतु इस विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों एवं आचार्यों से अपना विशेष योगदान देने की अपील करता हूँ।
विद्वत जनों!
किसी भी राष्ट्र की आत्मा उसकी संस्कृति होती है। संस्कृति जब तक जीवित व सुरक्षित है, तभी तक राष्ट्र भी जीवित व सुरक्षित रहता है। विश्व की सारी संस्कृतियों में सबसे प्राचीन एवं श्रेष्ठ हमारी भारतीयसंस्कृति या वैदिक संस्कृति है। इस संस्कृति का आधार संस्कृत भाषा है।
संस्कृत भाषा के बिना भारतीय संस्कृति की और भारतीय संस्कृति के बिना भारत की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जब संस्कृत भाषा मातृभाषा थी, तब अनेक शाश्वत शास्त्र लिखे गए। भाषा के क्षेत्र में यास्क, पाणिनि, पतंजलि जैसे आचार्य हुए। ज्योतिष, गणित आदि के क्षेत्र में आर्यभट्ट, वाराहमिहिर आदि को कौन नहीं जानता?
चिकित्सा क्षेत्र में धन्वंतरि, चरक, सुश्रुत जैसे आचार्य हुए एवं नीति के क्षेत्र में विदुर, शुक्राचार्य, चाणक्य जैसे अनेक आचार्यों के साथ-साथ साहित्य क्षेत्र में वाल्मीकि, व्यास, कालिदास जैसे कवि हुए। विमान के विषय में भारद्वाज को कैसे भुलाया जा सकता है। तब नालन्दा, तक्षशिला, विक्रमशिला जैसे उच्च शिक्षण केन्द्रों पर हजारों विदेशी छात्र अध्ययन के लिए आते थे। उस समय भारत में अनगिनत गुरुकुल हुआ करते थे।ज्ञान-विज्ञान एवं कला के हर क्षेत्र में भारत आगे था।
स्वतंत्रता के बाद संस्कृत को जो स्थान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। अब नए युग की अपेक्षा के अनुरूप नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 बनी है, जिसमें आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के साथ प्राचीन भारतीय ज्ञान एवं परंपरा की पोषक संस्कृत भाषा को उचित स्थान दिया गया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि अत्यन्त समृद्ध, वैज्ञानिक, सुव्यवस्थित एवं अनगिनत विशेषताओं से भरी देववाणी संस्कृत भाषा पुनः अपना गौरव प्राप्त करेगी।
प्रसन्नता का विषय है कि वर्तमान में लोगों का भी संस्कृत के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी प्रायः अपने हर वक्तव्य में संस्कृत का प्रयोग कर इसे प्रोत्साहित करते रहते हैं। विशेषज्ञों का भी मानना है कि संस्कृत को डिजिटल भाषा में प्रयोग करने की तकनीकी विकसित कर ली जाय, तो भाषा जगत का महान् उपकार होगा ही, कम्प्यूटर एवं विज्ञान के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व परिणाम देखने को मिल सकता है। कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग के लिए संस्कृत सबसे उपयुक्त भाषा है, इस दिशा में कार्य भी हो रहा है।
प्रिय विद्यार्थियों!
जैसे रथ के दो पहिए होते हैं, तभी वह चल पाता है। दो पंखों से ही पक्षी उड़ान भर पाता है, ठीक वैसे ही आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के साथ प्राचीन ज्ञान-विज्ञान का भी अध्ययन होना चाहिए। प्राचीन विद्याओं एवं आधुनिक विज्ञान का सह अध्ययन-अध्यापन व अनुसंधान हो, इसके लिए हमें आगे बढ़कर कार्य करना है।
हमारी संस्कृति में नारियों को सर्वाेच्च स्थान दिया गया है। आज हर क्षेत्र में नारी शक्ति अपना कौशल दिखा रही हैं, मुझे खुशी है कि इस विश्वविद्यालय में भी बेटियां न केवल अध्ययन कर रही हैं, अपितु अन्य कई क्षेत्रों में भी अपना कौशल दिखा रही हैं। कहा भी गया है, ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
मेरा मानना है कि सही दिशा में समय पर किया गया परिश्रम कभी व्यर्थ नहीं होता है। संस्कृत क्षेत्र में हमयदि रोजगार की दृष्टि से देखें, तो अध्यापन के अतिरिक्त कर्मकाण्ड, ज्योतिष, वास्तु, खगोल, व्यासवृत्ति, आयुर्वेद, योग, धर्मगुरु (सेना में), भाषानुवाद, प्रतियोगी परीक्षाएं, पत्रकारिता, आकाशवाणी, दूरदर्शन आदि कई क्षेत्र हैं, जहां संस्कृतज्ञों के लिए रोजगार के अच्छे अवसर उपलब्ध हैं।
आप जानते हैं कि पर्यावरण सन्तुलन आज वैश्विक चुनौती है। हमारे संस्कृत शास्त्रों में पृथ्वी को माता माना गया है यथा- माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।
नदी हो या सागर, वृक्ष हो या वन, पर्वत हो या मिट्टी का कण, कुँआ हो या सरोवर, सब को देवतुल्य माना है। चीटीं हो या हाथी, सिंह हो या गाय, नाग हो या मूषक, कुत्ता हो या कौआ सबको किसी न किसी देवता के वाहन के रूप में आदर दिया गया है। हमारी सभी जीवों को तृप्त करने की प्रथा है। यह सब पर्यावरण संतुलन की दृष्टि से आज भी बहुत ही प्रासंगिक है।
हमारे छात्र समाज के हर वर्ग के साथ मिलकर पर्यावरण संरक्षण में अपना विशेष योगदान दे सकते हैं। साथ ही समाज में व्याप्त अन्धविश्वास, दुव्र्यसन आदि कुप्रथाओं एवं कुरीतियों को दूर करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
प्रिय विद्यार्थियों!
हमारी सनातन संस्कृति ने सम्पूर्ण पृथ्वी को ही अपना परिवार माना है। वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना के साथ हमेशा ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’’ ‘‘लोकाः समस्ताः सुखिनो भवन्तु’’ की कामना की है। हमारे देश में भी पूरब से पश्चिम एवं उत्तर से दक्षिण तक सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोने का काम संस्कृत करती आई है, क्योंकि देश के अलग-अलग राज्यों, भागों में भाषा, वेशभूषा, खान-पान आदि भले ही अलग-अलग हों, किन्तु सबके धार्मिक अनुष्ठान संस्कृत के माध्यम से ही सम्पन्न होते हैं। इसलिए हमारी संस्कृति के संरक्षण, संवर्धन एवं प्रचार-प्रसार में संस्कृत की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
विद्वत जनों!
हम सभी जानते हैं कि देवभाषा का इस देवभूमि उत्तराखण्ड से भी गहरा सम्बन्ध है, क्योंकि पुराणादि शास्त्रों की रचना भूमि देवभूमि ही है। आस्था के श्रेष्ठ केन्द्र बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री, हेमकुण्ड साहिब, पंच बद्री, पंच केदार और पंच प्रयाग आदि दिव्य धाम इसी भूमि पर विराजमान हैं। आदि काल से ही यह साधना व तपस्या की भूमि रही है। यहां दिव्य औषधियों का असीम भण्डार है।
हमें खुशी है कि हमारा प्रदेश, देश का पहला राज्य है, जहां संस्कृत को द्वितीय राजभाषा का दर्जा सबसे पहले प्राप्त हुआ। संस्कृत, संस्कृति एवं प्राचीन विद्याओं के संरक्षण, संवर्धन, अध्ययन-अध्यापन तथा आधुनिक विज्ञान व संसाधनों के साथ अनुसंधान आदि के लिए ही इस संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना हुई।
संस्कृत के प्रचार-प्रसार, पाण्डु लिपियों के संरक्षण, संस्कृत के प्रति लोगों की अभिरुचि जागृत करना आदि लक्ष्यों को लेकर संस्कृत अकादमी बनी। यहां संस्कृत के लिए स्वतंत्र संस्कृत निदेशालय बना। कई गांवों को संस्कृत ग्राम के रूप में विकसित करने का भी प्रयास हो रहा है।
यह अपार हर्ष का विषय है कि संस्कृत, संस्कृति एवं प्राचीन विद्याओं के संरक्षण और संवर्धन के लिए स्थापित यह विश्वविद्यालय अपने लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ रहा है।
विश्वविद्यालय को निरंतर प्रगति के पथ पर लेकर जाने के लिए संस्कृत विश्वविद्यालय ने अनेक संस्थानों से डव्न्किए हैं, जिनमें प्प्ज्रुड़की विशेष उल्लेखनीय है साथ ही प्प्ज् पटना के साथ भी निकट भविष्य में डव्न् करने की मुझे सूचना प्राप्त हुई है जो अवश्य ही विश्वविद्यालय की उन्नति में अत्यन्त सहायक सिद्ध होगा।
विद्वत जनों!
भारत प्राचीन काल से ही विश्वगुरु के रूप में जाना जाता रहा है। जिसने विश्वबन्धुत्व की भावना का प्रचार-प्रसार कर समस्त विश्व को प्रेरित किया। हमें गर्व है कि आज पुनः एक बार हमारा नया भारत नित नई ऊंचाइयों को छूकर आगे बढ़ रहा है।
हमारा देश विकसित, आत्मनिर्भर, समृद्ध, तथा विश्वगुरु के रूप में पुनः प्रतिष्ठित हो, इसके लिए हमें भी संकल्प लेकर पूरे उत्साह एवं समर्पण के साथ कार्य करना है। आप सभी युवा पूरे उत्साह एवं समर्पण के साथ ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’, स्वच्छ भारत-स्वस्थ भारत एवं समृद्ध भारत बनाने में अपना योगदान देंगे, ऐसा मुझे विश्वास है।
प्यारे विद्यार्थियों,
आप सभी विद्यार्थी-गण संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति की श्रीवृद्धि करते रहेंगे। संस्कृत भाषा में संचित हमारी अनमोल विरासत को मजबूत बनाते हुए, आप सब विकसित भारत के नवनिर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देंगे। मुझे आप सभी युवाओं से अपेक्षा भी है और भरोसा भी है।
जिस प्रकार देवभूमि से निकली गंगा समस्त प्राणियों का कल्याण करती है उसी प्रकार देवभूमि के इस विश्वविद्यालय से निकली ज्ञान रूपी गंगा समस्त विश्व को अपनी सुधा से तृप्त करेगी, सबको अध्यात्म तथा ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नई दिशा प्रदान करेगी, ऐसा मुझे विश्वास है।
इस सुंदर तथा भव्य दीक्षांत समारोह के आयोजन के लिए विश्वविद्यालय परिवार के सभी कर्मशील लोगों को हृदय से धन्यवाद। मैं समस्त विद्यार्थियों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए अपनी वाणी को विराम देता हूँ।
जयतु भारतम् (जय हिन्द)!