09-09-2025 : ‘हिमालय कॉलिंग 2025’ के उद्घाटन समारोह के अवसर पर माननीय राज्यपाल का सम्बोधन
जय हिन्द!
सम्माननीय अतिथिगण,
आज ‘हिमालय कॉलिंग 2025’ जैसे एक संवेदनशील, गंभीर और महत्वपूर्ण विषय पर इस ऐतिहासिक सम्मेलन के उद्घाटन अवसर पर विद्वतजनों, वैज्ञानिकों, नीति-निर्माताओं, प्रिय विद्यार्थियों और देवतुल्य नागरिकों के बीच उपस्थित होकर मैं अपार प्रसन्नता और गर्व की अनुभूति कर रहा हूँ। यह केवल एक आयोजन मात्र नहीं है, बल्कि पर्वतराज हिमालय के प्रति हमारी सामूहिक श्रद्धा, संवेदना और संकल्प का प्रतीक है।
मुझे प्रसन्नता है कि आज समेत आने वाले तीन दिन भी पूरी दुनिया के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण विषय हिमालय के संरक्षण और उनके महत्व को समर्पित है। मैं यूपीईएस और Himalayan Institute for Learning and Leadership (HIL) को इस महत्वपूर्ण सम्मेलन के आयोजन के लिए बधाई देता हूँ।
मित्रों,
भारत का हृदय, आत्मा और संस्कृति हिमालय की गोद में ही पली-बढ़ी है। हमारे ऋषि-मुनियों ने इसे ‘गिरिराज’ कहा, देवताओं का निवास-स्थान माना और इस पर्वतराज को ‘आध्यात्मिक ध्रुवतारा’ के रूप में स्वीकार किया। वेदों से लेकर उपनिषदों तक, पुराणों से लेकर संत कवियों तक – हर कालखण्ड में हिमालय को केवल भूगोल का अंश नहीं, बल्कि आध्यात्मिक जीवन का शाश्वत आधार माना गया।
ऋग्वेद में पर्वतराज की महिमा का गान करते हुए कहा गया है- “हिमवान् पर्वतो महान्, यस्य नित्या धाराः प्रवहन्ति।” अर्थात् – हिमालय वह महान पर्वत है, जिसकी शाश्वत धाराएँ धरती को जीवन देती रहती हैं।
यहाँ से निकलने वाली गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र और सिंधु जैसी जीवनदायिनी नदियाँ न केवल भारत, बल्कि सम्पूर्ण दक्षिण एशिया की सभ्यता का आधार बनीं। यही कारण है कि हमारे ऋषियों ने हिमालय को ‘जल का कोष’, ‘संस्कृति का पालक’ और ‘जीवन का रक्षक’ माना।
साथियों,
भारत की प्राचीन सभ्यता प्रकृति-आधारित रही है। गिरिराज हिमालय में कैलास शिखर भगवान शिव का निवास है। यहीं बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री जैसे पावन धाम स्थित हैं। आदिगुरु शंकराचार्य ने भी हिमालय की गोद में आकर अद्वैत दर्शन का प्रचार किया। गुरु नानक देव जी ने यहाँ आकर कहा – “पर्वत, नदी, आकाश और वन – सब ईश्वर का रूप हैं, और जल हमें सृष्टि से जोड़ने वाला सेतु है।”
हिमालय केवल धार्मिक स्थल ही नहीं, बल्कि ज्ञान और तपस्या की भूमि भी रहे हैं। ऋषि व्यास ने यहाँ महाभारत की रचना की। योगियों और साधकों ने यहाँ तप कर आत्मज्ञान पाया। यहाँ की नीरव गुफाएँ, पावन नदियाँ और हिमाच्छादित शिखर आत्मा को शांति और ऊर्जा प्रदान करते हैं।
साथियों,
हिमालय के संरक्षण में ही मानवता और प्रकृति का कल्याण निहित है। आज प्रकृति हमें बार-बार चेतावनी दे रही है- कभी बाढ़ और बादलों के फटने के रूप में, तो कभी बढ़ती गर्मी और प्रदूषण के रूप में। यह संकेत हैं कि जल, जंगल और जमीन की अनदेखी मानवता के लिए संकट बन रही है।
वर्तमान समय में पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, नदियों का प्रदूषण और कंक्रीट के जंगल हमारे अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर रहे हैं। हमें यह समझना होगा कि प्रकृति ने जो दिया है, उसे उसी के स्थान पर रहने देना आवश्यक है। हमारी सांसें तभी सुरक्षित हैं जब वायु शुद्ध हो, भोजन तभी जीवनदायी है जब वह औषधि के समान पवित्र हो, और जल तभी अमृत है जब वह प्रदूषण से मुक्त हो। हम सभी को इस चेतावनी को समझना होगा, और पौधरोपण, जल संरक्षण और पर्यावरणीय संतुलन की दिशा में पहल करनी होगी।
हिमालय केवल पर्वत नहीं हैं, बल्कि हमारी जीवन-रेखा हैं। उनकी विशेष भौगोलिक परिस्थितियाँ हमें शोध और अध्ययन का आह्वान करती हैं। आज वैश्विक स्तर पर हिमालय को समझने और संरक्षित करने का प्रयास समय की मांग है।
मित्रों,
हिमालय हमें धैर्य सिखाता है। उसकी ऊँचाइयाँ हमें महानता का बोध कराती हैं। उसकी नदियाँ निरंतर प्रवाह और सेवा की शिक्षा देती हैं। उसकी घाटियाँ हमें विनम्र बनना सिखाती हैं। उसकी बर्फ की शीतलता हमें तप और संयम का संदेश देती है। हमारी युवा पीढ़ी के लिए हिमालय केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि भविष्य की प्रेरणा है। आधुनिक युग की तेज-तर्रार जीवनशैली में हिमालय हमें संतुलन, संयम और स्थिरता का मार्ग दिखाता है।
आज का यह सम्मेलन केवल पर्यावरण या अकादमिक विमर्श नहीं है। इसका विषय – “हिमालय के साथ: एक धरती, एक परिवार, एक भविष्य – मिलकर SDGs को पूरा करना”- यह भारत की शाश्वत अवधारणा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ को पुनः प्रतिध्वनित करता है।
संपूर्ण पृथ्वी एक परिवार है – जब हिमालय स्वस्थ रहेंगे तो दुनिया स्वस्थ रहेगी। जब हिमालय आहत होंगे तो पूरी मानवता पर संकट आएगा। यही कारण है कि हिमालय का संरक्षण केवल भारत की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि वैश्विक उत्तरदायित्व है।
हिमालय जलवायु परिवर्तन के प्रथम साक्षी हैं। यहाँ की नदियाँ सूखेंगी तो करोड़ों जीवन प्रभावित होंगे। यहाँ की बर्फ पिघलेगी तो समुद्र बढ़ेगा और विश्व-भर के तटीय शहर खतरे में आ जाएँगे। इसलिए सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स (SDG)को प्राप्त करने की दिशा में हिमालय की रक्षा करना मानवता की साझा जिम्मेदारी है।
भारतीय संस्कृति में प्रकृति की हर इकाई को देवत्व प्रदान किया गया। जहाँ सूर्य – ऊर्जा के देवता हैं। चंद्रमा – शीतलता और शांति के प्रतीक हैं। नदियाँ – मातृस्वरूपा हैं। वनस्पति – औषधि और जीवनदायिनी शक्ति है। और पर्वत – अचलता, स्थिरता और बल के प्रतीक हैं। धरती को हम भूमाता के रूप में पूजते हैं। यही भावना हमें सिखाती है कि विकास और संरक्षण परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं।
मुझे प्रसन्नता है कि हिमालयन इंस्टिट्यूट फॉर लर्निंग एंड लीडरशिप (HILL) इसी सोच के साथ कार्य कर रहा है। यह मंच विज्ञान, नीति, समुदाय और उद्योग को जोड़ता है। यहाँ से निकलने वाले समाधान केवल शोध तक सीमित नहीं रहते, बल्कि सीधे समाज के जीवन में उतरते हैं।
यह मंच आपदा प्रबंधन, जलवायु परिवर्तन और मानव वन्यजीव संघर्ष जैसे मुद्दों पर ठोस रणनीति बना रहा है। यह स्थानीय रोजगार, उद्यमिता और संस्कृति को जोड़ रहा है। यह विश्वविद्यालयों और समाज को एक सूत्र में पिरो रहा है। जो एक आदर्श उदाहरण है कि उच्च शिक्षा संस्थान केवल ज्ञान के केन्द्र नहीं होते, बल्कि क्षेत्रीय और वैश्विक भविष्य को आकार देने वाले थिंक टैंक होते हैं।
हिमालय की चोटियों से बहता जल हमें निरंतरता और पवित्रता का संदेश देता है। यहाँ की नीरव घाटियाँ हमें ध्यान और आत्मसंवाद की प्रेरणा देती हैं। उपनिषदों में कहा गया है- “शान्तोऽहमस्मि हिमवद्वत्।” अर्थात – मैं हिमालय के समान शांत हूँ। और यही शांति पूरे विश्व को चाहिए। आज जब संसार युद्ध, प्रदूषण, असमानता और असुरक्षा से जूझ रहा है, तब हिमालय हमें करुणा, संतुलन और सह-अस्तित्व का मार्ग दिखा रहा है।
साथियों,
हिमालय केवल भारत की सीमा तक सीमित नहीं। यह नेपाल, भूटान, तिब्बत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान तक फैले हुए हैं। इनकी रक्षा के लिए सभी देशों को साथ आना होगा। लेकिन शुरुआत हमें स्थानीय स्तर से करनी होगी – पेड़ लगाकर, नदियों को स्वच्छ बनाकर, ऊर्जा का संयमित उपयोग करके और अपनी परंपराओं को संजोकर।
अंत में, मैं आप सभी को इस सम्मेलन में भागीदारी के लिए बधाई देता हूँ। मैं पुनः यूपीईएस और HILL को इस महत्वपूर्ण आयोजन के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ। मेरा विश्वास है कि यहाँ से निकलने वाले विचार और सुझाव केवल दस्तावेजों तक सीमित नहीं रहेंगे, बल्कि व्यवहारिक जीवन में उतरकर हिमालय की रक्षा करेंगे और सम्पूर्ण मानवता को लाभ पहुँचाएँगे।
हिमालय को बचाकर ही हम आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित और समृद्ध भविष्य बना सकते हैं। आइए, आज हम सब मिलकर यह संकल्प लें – कि हम गिरिराज हिमालय की रक्षा करेंगे। हम विकास और संरक्षण में संतुलन रखेंगे। हम प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की राह चुनेंगे और हम “एक धरती, एक परिवार और एक भविष्य” के लिए प्रतिबद्ध रहेंगे। यही हिमालय की पुकार है।
मैं अपने इस वक्तव्य को वैदिक शांति मंत्र के साथ विराम देता हूँ –
“ॐ द्यौः शान्तिः अन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिः,
आपः शान्तिः ओषधयः शान्तिः वनस्पतयः शान्तिः,
विश्वे देवाः शान्तिः ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिः एव शान्तिः।”
अर्थात – आकाश में शांति हो, वायु मंडल में शांति हो, पृथ्वी पर शांति हो। नदियों में शांति हो, औषधियों और वृक्षों में शांति हो। समस्त देवताओं में शांति हो, ब्रह्म में शांति हो और सम्पूर्ण सृष्टि शांति से ओतप्रोत हो।
जय हिन्द!