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    24-11-2025:उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार में द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन सत्र में माननीय राज्यपाल महोदय का सम्बोधन

    प्रकाशित तिथि : नवम्बर 24, 2025

    विषय: ‘‘सिख गुरु परंपरा में धर्म, समाज और राष्ट्रवाद की अवधारणा’’

    जय हिन्द!

    वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतह!

    आदरणीय उपस्थित जन,

    सिख गुरु परंपरा पर आधारित इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में उपस्थित होकर मुझे अत्यंत गर्व की अनुभूति हो रही है। यह क्षण भारत की आध्यात्मिक चेतना, सांस्कृतिक गौरव और राष्ट्रीय आत्मा को पुनस्र्मरण करने का एक पवित्र अवसर है।

    आज हम सब यहाँ श्री गुरु तेग बहादुर जी की 350वीं शहादत दिवस की पावन स्मृति को नमन करने और सिख गुरु परंपरा की उस कालजयी प्रेरणा का वंदन करने के लिए एकत्र हुए हैं, जिसने इस राष्ट्र को केवल विजय नहीं, बल्कि मूल्य, त्याग, सेवा और मानवता का वह ऊँचा शिखर प्रदान किया है जो पूरी दुनिया के लिए एक उदाहरण है।

    यहाँ प्रस्तुत ‘सबद-कीर्तन’, ‘हिन्द की चादर’ – ‘शहादत की गाथा’ ने मानो हमारे भीतर सोई हुई राष्ट्रीय चेतना को पुनः जागृत कर दिया। यह राष्ट्रभक्ति की प्रज्वलित अग्नि थी, जिसने प्रत्येक हृदय में सत्य, साहस और अदम्य बलिदान का अलौकिक प्रकाश भर दिया। इसने हमें यह संदेश दिया कि भारत-माता की रक्षा हेतु हँसते-हँसते सब कुछ अर्पित कर देना ही सच्चा धर्म, सच्चा कर्म और सच्चा राष्ट्रधर्म है।

    अभी यहाँ पर हमने गुरुजी के समग्र जीवन पर आधारित ‘‘सिसु दिआ परु सिररु न दीआ-धर्म रक्षक गुरु तेग बहादुर’’ पुस्तक का विमोचन किया, इस कृति के लेखक डॉ. अजय परमार और गुरु गोबिन्द सिंह शोधपीठ को मैं हृदय से बधाई देता हूँ। यह कृति केवल इतिहास का वर्णन नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक जीवंत प्रेरणा है, जो उन्हें सिख गुरु परंपरा के जीवटता, शौर्य और संयम से परिचित कराएगी।

    साथियों,

    आज का विषय-“सिख गुरु परंपरा में धर्म, समाज और राष्ट्रवाद की अवधारणा”- यह विषय हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व से जुड़ा हुआ है। भारतीय संस्कृति में धर्म केवल पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि जीवन का पूर्ण आचरण है, और सिख गुरु परंपरा ने इसी धर्म को कर्म-प्रधान, सत्य-प्रधान और मानवता-प्रधान स्वरूप प्रदान किया।

    गुरु नानक देव जी ने जब कहा-“न कोई हिंदू, न मुसलमान”। तो यह किसी पहचान को नकारना नहीं था, बल्कि यह कहना था कि मनुष्य की सर्वाेच्च पहचान उसका मानव-धर्म है। नाम जपना, किरत करनी और वंड छकना-ये तीन मूल सिद्धांत सिख धर्म को केवल आध्यात्मिक मार्ग नहीं, बल्कि सामाजिक पुनर्रचना का मार्ग बनाते हैं।

    सिख गुरु परंपरा में समाज की अवधारणा अत्यंत व्यापक है। संगत और पंगत ने पहली बार भारत को यह संदेश दिया कि भोजन, स्थान, जीवन और अवसर सबका समान अधिकार हैं। गुरुद्वारों में आज भी चलने वाला लंगर केवल भोजन नहीं, बल्कि मानव-समता का एक वैश्विक आंदोलन है।

    सेवा, जिसे सिख परंपरा ‘‘निःस्वार्थ सेवा’’ कहती है, पूरी दुनिया के लिए मानवता का सर्वाेच्च मानदंड बन चुकी है। चाहे प्राकृतिक आपदा हो, कोई संकट हो या शरणार्थियों की पीड़ा। सिख सेवा परंपरा हर परिस्थिति में सबसे पहले, सबसे आगे, और सबसे निस्वार्थ खड़ी होती है। यही वह समाज-धर्म है जो भारत के लोक-जीवन को ताकत देता है और सदियों से हमारी सांस्कृतिक रीढ़ बना हुआ है।

    साथियों,

    यदि सिख गुरु परंपरा के राष्ट्रवाद की बात करें, तो यह विचार राजनीति की सीमा से बहुत ऊपर है। यह राष्ट्रवाद धार्मिक नैतिकता, आंतरिक तप, साहस, करुणा और कर्तव्यबोध का समन्वय है। गुरु हरगोबिन्द साहिब का मिरी-पिरी का सिद्धांत इस राष्ट्रवाद की आधारशिला है। उन्होंने विश्व को एक अनूठा मार्ग दिया, जहाँ मनुष्य भीतर से संत हो और बाहर से साहसी सिपाही।

    यही भारत का राष्ट्रवाद है, जहाँ न्याय, त्याग और धर्म एक-दूसरे के पूरक हैं। इस मार्ग को आगे ले जाकर गुरु गोबिन्द सिंह जी ने खालसा का निर्माण किया, जिसने वीरता को अध्यात्म से और राष्ट्रधर्म को मानवता की सेवा से जोड़ा।

    इन समस्त आदर्शों का जीवंत शिखर यदि किसी महापुरुष में प्रकट होता है तो वह ‘‘हिन्द की चादर’’ श्री गुरु तेग बहादुर जी हैं। जब अत्याचार अपने चरम पर था, जब कश्मीरी पंडितों से आस्था छीनी जा रही थी, जब धर्म और अस्मिता पर आघात हो रहा था, तब एक महापुरुष आगे आए। उन्होंने किसी समुदाय का नहीं, बल्कि मानव-धर्म का साथ दिया।

    उन्होंने किसी एक की नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र की आत्मा की रक्षा के लिए अपना शीश न्योछावर किया। विश्व इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता कि किसी संप्रदाय के लोगों की रक्षा हेतु किसी अन्य धर्म के महापुरुष ने अपने प्राण अर्पित कर दिए हों। यह बलिदान केवल धर्म की रक्षा नहीं था। यह स्वतंत्रता, मानवाधिकार, गरिमा और राष्ट्र की आत्मा की रक्षा था।

    भारत ने सदियों से इस शहादत को स्मरण रखा है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी द्वारा 26 दिसम्बर को ‘‘वीर बाल दिवस’’ घोषित किया जाना इसी परंपरा का सम्मान है। इस निर्णय ने गुरु गोबिन्द सिंह जी के चारों साहिबजादों के अद्भुत बलिदान को राष्ट्रीय चेतना में अमर कर दिया है। यह भारत के उस संकल्प का प्रमाण है कि हम अपनी आध्यात्मिक विरासत, अपनी संस्कृति और अपने राष्ट्रीय आदर्शों को कभी विस्मृत नहीं होने देंगे।

    साथियों,

    आज जब हम गुरु साहिब के जीवन पर चर्चा कर रहे हैं, तो यह केवल अतीत का स्मरण नहीं है। यह वर्तमान की चुनौतियों और भविष्य की जिम्मेदारियों का भी पुनस्र्मरण है। आज दुनिया में वैचारिक संघर्ष बढ़ रहे हैं, समाज में विभाजन उत्पन्न करने वाली शक्तियाँ सक्रिय हैं, और कई बार राष्ट्र की एकता और अखंडता को चुनौती देने के प्रयास होते हैं।

    ऐसे समय में गुरु तेग बहादुर जी की शिक्षा हमें यह प्रेरणा देती है कि राष्ट्र सर्वाेपरि है। उनके जीवन का सार यही है कि व्यक्ति से ऊपर परिवार, परिवार से ऊपर समाज, और समाज से ऊपर राष्ट्र होता है। जब तक हम इस क्रम को आत्मसात नहीं करेंगे, विकसित भारत का स्वप्न अधूरा रहेगा।

    साथियों,

    आज पूरा देश विकसित भारत 2047 के संकल्प की ओर बढ़ रहा है। यह केवल आर्थिक प्रगति का लक्ष्य नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, नैतिक और राष्ट्रीय पुनरुत्थान का संकल्प है।

    विकसित भारत का अर्थ है- एक ऐसा भारत जो तकनीक में अग्रणी हो, युवा शक्ति में प्रगतिशील हो, और साथ ही अपने आध्यात्मिक आदर्शों में गहराई से जुड़ा हुआ हो। गुरु परंपरा का राष्ट्र-धर्म, राष्ट्र-प्रेम और मानवता-प्रधान दृष्टिकोण विकसित भारत के इसी निर्माण का मूलाधार है।

    हमारा दायित्व है कि हम “राष्ट्र प्रथम” की भावना को अपने जीवन में उतारें। जब प्रत्येक नागरिक राष्ट्र को सर्वाेपरि मानकर कार्य करेगा, तब ही भारत आत्मनिर्भर, शक्तिशाली और विकसित बन पाएगा।

    हमारा संविधान, हमारी संस्कृति, हमारी सेना, हमारे युवा, हमारे किसान-सब राष्ट्र-निर्माण की इस महान यात्रा के साथी हैं। और इस यात्रा में सिख गुरु परंपरा की प्रेरणा एक मार्गदर्शक दीपक के समान है।

    सत्य के लिए दृढ़ता, सेवा के लिए समर्पण, समाज के प्रति संवेदनशीलता, और राष्ट्र के लिए अदम्य निष्ठा- ये चार संदेश हमें गुरु परंपरा से प्राप्त होते हैं। यदि ये चार संदेश भारतीय जीवन में स्थायी हो जाएँ, तो विकसित भारत केवल लक्ष्य नहीं, बल्कि निकट भविष्य की सच्चाई बन जाएगा।

    इस संगोष्ठी के माध्यम से व्यक्त हुए विचार, निश्चित रूप से राष्ट्र की चेतना को मजबूत करेंगे। मैं विश्वविद्यालय, आयोजकों, प्रतिभागियों और सभी विद्वानों को हार्दिक बधाई देता हूँ कि उन्होंने भारतीय अध्यात्म, सामाजिक समरसता और राष्ट्रवाद पर आधारित इस महत्वपूर्ण विमर्श को राष्ट्रीय पटल पर रखा।

    अंत में, हम सब मिलकर यह संकल्प लें कि भारत की आत्मा- सत्य, सेवा, समता और राष्ट्रधर्म को कभी कमजोर नहीं पड़ने देंगे। हम गुरु साहिब द्वारा दिखाए गए मार्ग पर अडिग रहेंगे। हम वह भारत बनाएँगे जो शक्तिशाली भी हो, संवेदनशील भी, आधुनिक भी हो, और आध्यात्मिक भी।

    इस आशा और विश्वास के साथ इस पुण्य अवसर पर, मैं सभी दस गुरुओं के चरणों में आदरपूर्वक नमन करते हुए अपनी वाणी को विराम देता हूँ।

    वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतह!

    जय हिन्द!