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    27-10-2025-वीरचंद्र सिंह गढ़वाली उत्तराखंड औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय भरसार के वानिकी महाविद्यालयए रानीचौरी में माननीय राज्यपाल महोदय का उद्बोधन

    प्रकाशित तिथि: अक्टूबर 27, 2025

    वीरचंद्र सिंह गढ़वाली उत्तराखण्ड औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय भरसार के वानिकी महाविद्यालय, रानीचौरी में माननीय राज्यपाल महोदय का उद्बोधन

    (दिनांक 27 अक्टूबर, 2025)

    विषयः भारत में कृषि-पारिस्थितिकी-पर्यटनः अवसर, चुनौतियाँ और आगे की राह

    जय हिन्द!

    आज देवभूमि उत्तराखण्ड की इस पवित्र भूमि पर, जहाँ प्रकृति और पुरुषार्थ दोनों का अद्भुत संगम है- “कृषि-पारिस्थितिकी-पर्यटनः अवसर, चुनौतियाँ और आगे की राह” जैसे महत्वपूर्ण विषय पर 14वें विचार-मंथन सत्र का उद्घाटन करते हुए मुझे अत्यंत हर्ष और गर्व की अनुभूति हो रही है।

    यह आयोजन केवल एक अकादमिक चर्चा नहीं, बल्कि अपने भारतवर्ष के भविष्य की दिशा तय करने वाला नेक प्रयास है, जो अपनी जड़ों में कृषि, आत्मा में पर्यावरण और हृदय में पर्यटन की संस्कृति को संजोए हुए है।

    मुझे प्रसन्नता है कि यह कार्यक्रम उस भूमि पर हो रहा है, जो केवल हिमालय की गोद नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का प्रतीक है। यहाँ के खेत-खलिहान, बाग-बगीचे और वनों में प्रकृति का विज्ञान, संस्कृति का सौंदर्य और आत्मनिर्भरता का संदेश एक साथ विद्यमान है।

    देवभूमि उत्तराखण्ड में पर्यटन केवल दृश्य-आनंद (अपेनंस कमसपहीज) नहीं, बल्कि जीवन का अनुभव है। यहाँ की पहाड़ियाँ, झरने, वन और गाँव “एग्री-इको-टूरिज्म” के लिए एक प्राकृतिक प्रयोगशाला के समान हैं – जहाँ हर खेत एक पाठशाला है, हर किसान एक शिक्षक है और हर पर्यटक एक विद्यार्थी है।

    साथियों,

    यह अच्छी बात है कि आज पर्यटन केवल मनोरंजन का माध्यम न रहकर सतत विकास का उपकरण बन रहा है। अब तक पर्यटन कुछ क्षेत्रों तक सीमित रहा है और भीड़-भाड़ से पर्यावरणीय दबाव बढ़ा है, परंतु इको-टूरिज्म और कृषि-पर्यटन जैसी पहलें इस प्रवृत्ति को एक नई दिशा दे रही हैं। ये न केवल प्रकृति और संस्कृति की रक्षा सुनिश्चित करती हैं, बल्कि किसानों व स्थानीय समुदायों को आत्मनिर्भरता और गरिमामय आजीविका का अवसर भी प्रदान करती हैं।

    हमारा देश भारत सदैव कृषि-केंद्रित सभ्यता रहा है। वेदों में कहा गया है – “कृषिः सर्वसिद्धानां मूलम्” – अर्थात् समृद्धि, संतुलन और स्थायित्व का मूल स्रोत कृषि ही है। हमारे ऋषियों ने भूमि को माता कहा है, जो अन्न देती है, जीवन देती है और संतुलन बनाए रखती है – यही हमारी पारिस्थितिक दृष्टि का आधार है।

    हमारे शास्त्रों में “यथा प्रकृति तथा प्रगति” की अवधारणा है – अर्थात् प्रकृति के अनुरूप ही प्रगति स्थायी और पवित्र हो सकती है। आज जब विश्व “सस्टेनेबल डेवलपमेंट” की बात कर रहा है, लेकिन अपना देश भारत तो हजारों वर्ष पहले ही यह दर्शन जी चुका है।

    हमारे देश की अर्थव्यवस्था की जड़ें कृषि में हैं। आज भी लगभग 45 प्रतिशत लोग कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों पर निर्भर हैं। यह केवल आजीविका नहीं, बल्कि जीवन का दर्शन है। कृषि हमारे ग्रामीण समाज की आत्मा है और पर्यावरण उसकी साँस। दोनों का संगम ही “एग्री-इको-टूरिज्म” का सार है, जहाँ खेत की हरियाली, पर्वत की शांति और संस्कृति की सरलता एक साथ अनुभव की जाती है।

    माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने कहा है – “पर्यटन परिवर्तन का माध्यम है।” कृषि-पर्यटन इस विचार का सशक्त उदाहरण है, जो किसानों को उद्यमी और गाँवों को विकास केंद्र में बदल सकता है।

    साथियों,

    भारत के पास अपार संभावनाएँ और प्राकृतिक संसाधन हैं, लेकिन यहाँ पर इको-टूरिज्म का विकास अभी प्रारंभिक अवस्था में है। सतत् पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए इको टूरिज्म और एडवेंचर टूरिज्म पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। पर्यटन मंत्रालय ने हाल ही में ‘‘ग्रामीण पर्यटन की राष्ट्रीय नीति’’ भी जारी की है। जो ग्रामीण पर्यटन नीति इनके विकास में सहायक सिद्ध हो सकती है।

    कृषि-पर्यावरण-पर्यटन (।हतप.मबव.जवनतपेउ) एक ऐसा व्यावसायिक मॉडल है, जो किसानों की आय बढ़ाने, ग्रामीण रोजगार सृजित करने, आजीविका सुधारने और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाने की क्षमता रखता है। यह पारंपरिक खेती को एक गतिशील व्यवसायिक उद्यम में बदलने का अवसर प्रदान करता है, जो कृषि, प्रकृति और संस्कृति तीनों को एक साथ जोड़ता है।

    उत्तराखण्ड इस दिशा में एक स्वाभाविक लाभ वाला राज्य है। यहाँ की भौगोलिक विविधता, बागवानी, जैविक खेती, पर्वतीय कृषि प्रणाली और पारंपरिक गाँव एग्री-इको-टूरिज्म के लिए आदर्श हैं।

    टिहरी गढ़वाल नागटिब्बा का गोट विलेज, मुक्तेश्वर का द्यो ऑर्गेनिक विलेज (क्लव व्तहंदपब टपससंहम), और नैनीताल का साइलेंट वैली फार्म – ये केवल पर्यटन स्थल नहीं, बल्कि सतत विकास के जीवंत प्रयोग हैं। ऐसे प्रयास ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। और पलायन को रोककर युवाओं को स्थानीय उद्यमिता के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

    पर्यटन आज विश्व स्तर पर आर्थिक विविधीकरण का एक प्रमुख साधन बन चुका है। भारत ने इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है, जिससे पर्यटन राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का सशक्त इंजन बन रहा है।

    कृषि-पर्यावरण पर्यटन केवल एक उद्योग नहीं, बल्कि ग्रामीण भारत के पुनर्जागरण का आंदोलन है। यह किसानों की आय बढ़ाने, परंपराओं को पुनर्जीवित करने, जैविक खेती और जल-संरक्षण को प्रोत्साहित करने तथा युवाओं को व्यावहारिक प्रशिक्षण देने का प्रभावी माध्यम बन सकता है। पर्यटन और कृषि के संगम से रोजगार की संभावनाएँ खुल रही हैं। यदि कुल यात्राओं का केवल पाँच प्रतिशत भी इस क्षेत्र की ओर आकर्षित किया जाए, तो किसानों की आय में अरबों रुपये की वृद्धि संभव है।

    महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजरात जैसे राज्यों में कृषि पर्यटन ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नया जीवन दिया है। उदाहरण के तौर पर, महाराष्ट्र के ।हतप ज्वनतपेउ क्मअमसवचउमदज ब्वतचवतंजपवद (।ज्क्ब्) ने 600 किसानों को जोड़कर लगभग ₹58 करोड़ की आय अर्जित की। यह दर्शाता है कि सही दिशा और नीति के साथ यह मॉडल उत्तराखण्ड में भी क्रांतिकारी सिद्ध हो सकता है।

    साथियों,

    हर अवसर अपने साथ कुछ चुनौतियाँ भी लाता है। कृषि-पर्यावरण पर्यटन के समक्ष भी चुनौतियाँ हैं। जागरूकता और प्रशिक्षण की कमी, कमजोर बुनियादी ढाँचा, नीतिगत समन्वय की आवश्यकता, वित्तीय और विपणन सहयोग की कमी, तथा पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने का दायित्व। हमें इन चुनौतियों से निपटना होगा।

    यदि इन चुनौतियों का समाधान- प्रशिक्षण, बेहतर आधारभूत सुविधाओं, विभागीय तालमेल और हरित नीतियों के माध्यम से किया जाए, तो यह मॉडल ग्रामीण भारत के सतत विकास का सशक्त माध्यम बन सकता है।

    मैं इस अवसर पर वीरचंद्र सिंह गढ़वाली उत्तराखण्ड औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, भरसार को विशेष बधाई देता हूँ, जो इको-टूरिज्म और कौशल-विकास पाठ्यक्रमों के माध्यम से विद्यार्थियों में नवाचार और उद्यमिता की भावना जागृत कर रहा है।

    इसी प्रकार, आचार्य नरेंद्र देव कृषि विश्वविद्यालय, अयोध्या और डॉ. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा द्वारा प्रारंभ किए गए एग्री-टूरिज्म प्रबंधन डिप्लोमा कार्यक्रम भी इस दिशा में प्रेरणादायक हैं। ये प्रयास दर्शाते हैं कि भारत के कृषि विश्वविद्यालय केवल शिक्षा के केंद्र नहीं, बल्कि ग्रामीण परिवर्तन की प्रयोगशालाएँ बन रहे हैं।

    आज मैं उन सभी किसानों, उद्यमियों और संस्थानों को हार्दिक बधाई देता हूँ जो कृषि-पर्यटन को भारत की नई आर्थिक क्रांति के रूप में उभार रहे हैं।

    आप सब हमारे कृषि-वीर हैं – जो खेतों में केवल अन्न नहीं, बल्कि अनुभव, आत्मनिर्भरता और विश्वास की फसल बो रहे हैं।
    मैं उन सभी युवाओं को भी शुभकामनाएं देता हूँ जो इस क्षेत्र में प्रशिक्षण ले रहे हैं। आपके हाथों में भारत के ग्रामीण पुनर्जागरण की दिशा है।

    प्रिय साथियों,

    भारत आज “विकसित भारत 2047” की यात्रा पर है। इस यात्रा में कृषि-पर्यावरण पर्यटन केवल एक विचार नहीं, बल्कि एक जनांदोलन बन सकता है – जो किसानों की आय बढ़ाएगा, पर्यावरण बचाएगा और ग्रामीण जीवन को गौरव प्रदान करेगा।

    आइए! हम सब मिलकर यह संकल्प लें-
    हम ऐसी कृषि करेंगे जो धरती को थकाए नहीं,
    ऐसा पर्यटन बढ़ाएँगे जो प्रकृति को दुखाए नहीं,
    और ऐसा विकास करेंगे जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करे।

    जब किसान अपने खेत में पर्यटक का स्वागत करेगा, तो वह केवल अतिथि नहीं होगा, बल्कि भारत के आत्मनिर्भर भविष्य का साक्षी होगा।

    मुझे विश्वास है कि भारतीय कृषि विश्वविद्यालय संघ (प्।न्।) अपने कृषि-पर्यावरण पर्यटन प्रयासों के माध्यम से ‘विकसित भारत’ के निर्माण में एक वैश्विक शिक्षक और प्रेरक की भूमिका निभाएगा।

    मैं भारतीय कृषि विश्वविद्यालय संघ (प्।न्।), वीरचंद्र सिंह गढ़वाली विश्वविद्यालय, और इस सत्र में सहभागी सभी विशेषज्ञों को इस आयोजन की सफलता के लिए अपनी हार्दिक शुभकामनाएं देता हूँ।

    मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह विचार-मंथन भारत को एक ऐसे मॉडल की ओर ले जाएगा, जहाँ कृषि, संस्कृति और प्रकृति – तीनों मिलकर भारत के ग्रामीण जीवन को नए उजाले से प्रकाशित करेंगी।

    जय जवान, जय किसान, जय विज्ञान, जय अनुसंधान!

    जय हिन्द!