शिक्षाविद् श्री एन. जे. यासस्वी जी के जीवन पर आधारित पुस्तक “First- Forever.” के विमोचन समारोह में माननीय राज्यपाल महोदय का उद्बोधन
जय हिन्द!
आज का यह अवसर मेरे लिए अत्यंत हर्ष और गर्व का क्षण है, जब हम सब मिलकर “थ्पतेज. थ्वतमअमतण्” जैसी प्रेरणादायी और ऐतिहासिक पुस्तक का विमोचन कर रहे हैं। मुझे लगता है – यह पुस्तक महान शिक्षाविद्, दूरदर्शी विचारक और राष्ट्र निर्माता श्री एन. जे. यासस्वी जी के जीवन और कार्यों का जीवंत दस्तावेज है।
यह कृति केवल एक जीवनी नहीं है, बल्कि यह एक आंदोलन, एक दृष्टि और एक दर्शन है – वह दर्शन जिसने शिक्षा को समाज परिवर्तन और राष्ट्र निर्माण का सबसे सशक्त माध्यम बना दिया।
श्री एन. जे. यासस्वी जी का जीवन हमें यह सिखाता है कि शिक्षा केवल पुस्तकों तक सीमित ज्ञान नहीं है, बल्कि यह जीवन जीने की कला है। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि शिक्षा का अधिकार केवल विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग तक सीमित न रहकर, हर वर्ग, हर क्षेत्र और हर विद्यार्थी तक पहुँचना चाहिए। उन्होंने शिक्षा को लोकतांत्रिक बनाने का संकल्प लिया और उसे क्रियान्वित कर दिखाया।
उन्होंने अपनी सोच को देश के कोने-कोने तक पहुँचाया। हिमालय की वादियों से लेकर पूर्वाेत्तर के दुर्गम इलाकों तक, उन्होंने विश्वविद्यालयों और संस्थानों की स्थापना कर उस शिक्षा दीपक को प्रज्वलित किया, जिसकी रोशनी आज भी लाखों विद्यार्थियों का मार्गदर्शन कर रही है।
आज जब हम उनके योगदान को देखते हैं तो गर्व होता है कि छत्तीसगढ़, त्रिपुरा, मिजोरम, मेघालय, नागालैंड, सिक्किम, उत्तराखण्ड, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, झारखंड और तेलंगाना – इन ग्यारह राज्यों में शिक्षा के क्षेत्र में उनका अमिट योगदान दर्ज है। यह केवल संस्थानों की स्थापना नहीं थी, बल्कि यह उस सपने की पूर्ति थी कि भारत का हर कोना ज्ञान और नवाचार की भूमि बने।
श्री यासस्वी का दृष्टिकोण शिक्षा को केवल प्रबंधन और वित्त तक सीमित रखने का नहीं था। उन्होंने विधि, प्रौद्योगिकी, अध्यापक शिक्षा, औषधि विज्ञान, कला और संस्कृति जैसे विविध क्षेत्रों में भी उत्कृष्ट संस्थान स्थापित किए। उनका मानना था कि शिक्षा रोजगार का साधन भर नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण और समाज सेवा का पथ है।
यासस्वी जी के लिए शिक्षा का वास्तविक अर्थ था – “ज्ञान, कौशल और मूल्यों का समन्वय।” यही कारण है कि उन्होंने भारतीय परंपरा और आधुनिक शिक्षा के बीच अद्भुत संतुलन स्थापित किया।
आज के समय में हम प्रायः संस्थान की भव्य इमारतों को उसकी सफलता का मापदंड मान लेते हैं। लेकिन यासस्वी जी का मानना था कि किसी संस्थान की असली शक्ति उसके छात्र, शिक्षक और मूल्य होते हैं। उन्होंने अपने संस्थानों को सत्यनिष्ठा, गुणवत्ता और विश्वास के आधार पर खड़ा किया। यही कारण है कि आज उनके संस्थान केवल पढ़ाई का केंद्र नहीं हैं, बल्कि वे राष्ट्र निर्माण की प्रयोगशालाएँ हैं।
मेरा मानना है कि यह पुस्तक केवल एक जीवनी नहीं है। यह हमें याद दिलाती है कि यदि हम दूरदृष्टि, ईमानदारी और समर्पण के साथ कार्य करें तो हम आने वाली पीढ़ियों का भविष्य बदल सकते हैं। “थ्पतेज. थ्वतमअमतण्” हमें यह संदेश देती है कि शिक्षा ही वह माध्यम है, जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति स्वयं को, समाज को और राष्ट्र को नई दिशा दे सकता है।
मैं इस अवसर पर विशेष रूप से विश्वविद्यालयों की भूमिका पर प्रकाश डालना चाहता हूँ। विश्वविद्यालय केवल डिग्री प्रदान करने वाले संस्थान नहीं हैं। वे समाज की चेतना के केंद्र हैं, जहाँ विचार, शोध और नवाचार के बीज पनपते हैं। विश्वविद्यालय ही वह भूमि हैं जहाँ से राष्ट्र को दिशा देने वाले विचारक, वैज्ञानिक, शिक्षक, उद्यमी और नेता निकलते हैं।
आज विकसित भारत 2047 के संकल्प की ओर अग्रसर होते हुए यह और भी आवश्यक हो जाता है कि हमारे विश्वविद्यालय केवल शिक्षा तक सीमित न रहें, बल्कि राष्ट्र निर्माण के अग्रदूत बनें।
इसी संदर्भ में, मैं एक महत्वपूर्ण बात कहना चाहता हूँ। मैंने सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों से यह आग्रह किया है कि वे अपने-अपने विश्वविद्यालय के संस्थापक की जीवनी पर पुस्तक लिखवाएँ।
क्योंकि जीवनी केवल एक व्यक्ति के जीवन की कथा नहीं होती, बल्कि वह उस युग की विचारधारा और संघर्ष की कहानी भी होती है। संस्थापकों के जीवन, उनके संघर्ष और उनके योगदान को लिखित रूप में संजोकर हम आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का खजाना छोड़ सकते हैं। यह कार्य हमें यह सिखाएगा कि संस्थान केवल ईंट-पत्थरों से नहीं बनते, बल्कि वह दृष्टि, मूल्य और समर्पण से निर्मित होते हैं।
भारत आज विश्वगुरु बनने की दिशा में अग्रसर है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के “विकसित भारत 2047” के सपने को साकार करने में शिक्षा सबसे बड़ी भूमिका निभाएगी। शिक्षा ही वह साधन है, जो हमें आत्मनिर्भर बनाएगी, वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा के योग्य बनाएगी और साथ ही हमारे मूल्यों व संस्कृति को सुरक्षित रखेगी।
यासस्वी जी का जीवन हमें यही सिखाता है कि यदि शिक्षा को राष्ट्र निर्माण का आधार बना दिया जाए, तो कोई भी शक्ति भारत को विश्व का नेतृत्व करने से नहीं रोक सकती।
मैं इस अवसर पर प्ब्थ्।प् यूनिवर्सिटी ऑफ देहरादून, पुस्तक के लेखकगण श्री वी. पत्ताभि राम और श्री सुधाकर राव को विशेष बधाई देता हूँ। आपने श्री यासस्वी जी के जीवन को शब्दों में ढालकर आने वाली पीढ़ियों के लिए अमूल्य धरोहर तैयार की है। मेरा विश्वास है कि यह पुस्तक शिक्षाविदों, विद्यार्थियों और समाज सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत बनेगी।
अंत में, मैं यही कहना चाहूँगा कि “थ्पतेज. थ्वतमअमतण्” केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि यह शिक्षा की अमर गाथा है। यह हमें प्रेरित करती है कि हम भी अपने जीवन को समाज और राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित करें।
श्री एन. जे. यासस्वी जी का जीवन इस बात का प्रमाण है कि सच्चा राष्ट्र निर्माण केवल और केवल शिक्षा के माध्यम से ही संभव है। आइए, हम सब मिलकर उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारें और विकसित भारत के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ें।